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सन् 52 में मसीहियत को पहली बार भारत लाने वाले संत थोमा (सेंट थॉमस)



 




 



यीशु मसीह के शिष्य का तामिल नाडू में पड़ा था काफ़ी प्रभाव

यीशु मसीह के बारह शिष्यों में से एक (सन्त) थोमा (सेंट थॉमस) जो गलील में पैदा हुए। वह 52 ई. में दक्षिण-पश्चिम भारत के मालाबार तट पर आए थे तथा जिन्होंने एक वर्ष पश्चात् 53 ई. में भारत के शहर मद्रास (वर्तमान चेन्नई) में माईलापुर के राजा के कार्यकाल के दौरान शहादत पाई थी। उन्होंने एक वर्ष के थोड़े से समय में ही अनेक लोगों को बप्तिसमा दे कर मसीही बना दिया था। उनकी याद में रोम में 21 दिसम्बर को तथा भारत में स्थित सीरियन कैथोलिक गिर्जाघरों में 3 जुलाई को तथा यूनानी गिर्जाघरों में 6 अक्तूबर को पवित्र भोज का आयोजन किया जाता है।


यीशु को बहुत प्यार करते थे थोमा

व्यवसाय से बढ़ई थोमा यीशु मसीह को बळुत प्यार करते थे। यूहन्ना 11ः5-16 अनुसार जब यीशु ने अकेले पुनः यहूदिया जाने की इच्छा प्रकट की थी, जहां भय था कि पथराव हो सकता है, तो थोमा ने कहा था कि आओ हम भी यीशु के साथ मरने को चलें। इसी प्रकार यूहन्ना 14ः1-7 अनुसार जब अन्तिम भोज के समय यीशु मसीह अपने सलीब पर चढ़ाए जाने संबंधी अपने शिष्यों को संकेतों में समझा रहे थे तो थोमा द्वारा पूछे प्रश्न के उत्तर में ही यीशु ने कहा था,‘मार्ग, तथा सच्चाई एवं जीवन मैं ही हूं।’


यीशु मसीह के घावों में उंगली डाल कर तसल्ली की थी थोमा ने कि क्या वह सचमुच पुनःजीवित हुए यीशु ही हैं

इसके अतिरिक्त जब यीशु पुनःजीवित हो उठे थे तो थोमा ने ही उन्हें जी उठने के उपरान्त कभी देखा नहीं था तो उन्होंने इच्छा प्रकट की थी कि यीशु मसीह की हथेलियों में कीलें लगने से तथा पसली में नेज़ा लगने से हुए घावों को छू कर ही विश्वास करेंगे कि वह सचमुच जीवित हो गए हैं। तब उन्होंने ऐसा किया भी था। माना जाता है कि जब थोमा ने यीशु के घावों में अपनी उंगली डाली, तो उनकी उंगली में लहू का लाल रंग हमेशा के लिए पक्का हो गया था।


वैटिकल सिटी ने सन्त थोमा की उंगली का एक भाग भारतीय मसीही समुदाय को दिया था उपहार स्वरूप

इसी लिए संत थोमा की उस उंगली का एक भाग वैटिकन सिटी द्वारा 1952 ई. में उस समय भारत के मसीही समुदाय को उपहार स्वरूप दिया गया था जब थोमा की भारत यात्रा के 1900 वर्ष संपूर्ण होने के सुअवसर पर समारोहों का आयोजन किया गया था।


खुरासान में मसीही प्रचार करने के पश्चात् भारत आए थे थोमा

चतुर्थ शताब्दी ई. में कैसरिया के बिशप यूसेबियस द्वारा लिखित इतिहास के अनुसार थोमा ने खुरासान में जा कर भी मसीही प्रचार किया था। बाद में थोमा भारत आ गए थे। उन्होंने सीरियन मालाबार क्रिस्चियन्स चर्च या सेंट थॉमस’ज़ का सुसंस्थापक माना जाता है। उन्हें सार्वजनिक धन लोगों के कल्याण पर ख़र्च करने के बदले में जेल भी भेज दिया गया था।


मद्राास के पास किया गया था संत थोमा को शहीद

उनके मसीही प्रचार से एक वर्ग इतना नाराज़ हो गया कि मद्रास के पास एक पहाड़ी पर पीछा करके उन्हें बरछे से शहीद कर दिया गया। इस पहाड़ी को आज सेंट थॉमस माऊँट कहा जाता है। जहां उन्हें दफ़नाया गया, वहां एक प्रसिद्ध गिर्जाघर बना हुआ है। इस गिर्जाघर को संत थोमा ने ही बनवाया था।


मसीही समुदाय ने ऐसे बांट दिया था संत थोमा की अस्थ्यिों को

संत थोमा ने ऐसी कई बातें लिखी हैं, जो बाईबल में तो मौजूद नहीं हैं परन्तु उनसे यीशु मसीह के समय विशेषतया मां मरियम की मृत्यु संबंधी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। चतुर्थ शताब्दी ई. में संत थोमा की कुछ अस्थियों को मध्य पूर्व में इफ़रातीस नदी के किनारे बने इदिसा गिर्जाधर में रखा गया था। बाद में वहां कुछ अस्थियों को निकाल कर मध्यकालीन युग में इटली के ओरटोना नगर ले जाया गया। परन्तु वहां से अस्थियों निकालते समय भी संत थोमा की कुछ अस्थ्यिां मद्रास के उस पहाड़ पर स्थित गिर्जाधर में रह गईं थीं। वर्ष 1923 में ये अस्थियां उस समय खोज कर निकाली गईं जब इस खण्डहर बन चुके गिर्जाघर को पुनःनिर्मित किया जा रहा था। ये अस्थ्यिां आज भी चेन्नई के गिर्जाघर में सुरक्षित पड़ी हैं। संत थोमा की सलीब भी वहां मौजूद है। यह सलीब उन्होंने गिर्जाघर की वेदी पर स्थापित की थी।


संत थोमा के अनुयायियों के चार समूह हैं भारत में सक्रिय

माना जाता है कि इस सलीब से सन् 1704 ई. तक प्रत्येक वर्ष 18 दिसम्बर की रात्रि को लहू के तुपके बहते थे। दरअसल 18 दिसम्बर सन् 53 को ही संत थोमा शहीद हुए थे। यह सलीब उक्त पहाड़ी पर पुराने गिर्जाघर के पुनःनिर्माण के समय खुदाई के समय 1547 ई. में मिली थी। संत थोमा द्वारा मसीही बनाए गए मसीही लोगों के चार समूह - सायरा मालाबार, सायरो मालानकाड़ा, सीरियन जेकबाईट एवं मारथोमाईट हैं, जो अधिकतर केरल में रहते हैं। इन्हें ‘संत थोमा के मसीही’ भी कहा जाता है।

एक धारणा के अनुसार पूर्वी सीरिया के नैस्टोरियन गिर्जाघर की गतिविधियों के कारण ये स्वेच्छा से पहली बार मसीही बने थेःः तब उनके संबंधी बेबीलोन (बग़दाद) के मसीही समुदायों से भी प्रगाढ़ रहे थे। वर्ष 1599 में पुर्तगाली आर्चबिशप अलीक्सो डी मेनेराज़ ने मालाबार के मसीही समुदाय के लिए लातीनी रीति रिवाजों के अनुसार प्रार्थना करने की घोषणा की थी। तब 1653 ई. में मालाबार के मसीही रोमन शासन के अधिकार-क्षेत्र से चले गए थे। जब इस बग़ावत का समाचार रोम पहुंचा, तो पोप अलैगज़ैंडर-सातवें ने 1661 ई. में सीरियाई बिशप सेबास्चियानी को मालाबार भोजा तथा रोम के मसीही चैल्डीन (पहले नैस्टोरियन) रीति रिवाज लागू किए।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

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