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प्रथम मसीही महिला स्वतंत्रता सेनानी पण्डिता रमाबाई



संस्कृत भाषा की विद्वान व कवित्री थीं पण्डिता रमाबाई

‘मुक्ति मिशन’ व ‘मुक्ति चर्च’ की संस्थापक पण्डिता रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 ई. में हुआ था। वह एक विद्वान समाज सुधारक थीं तथा महिलाओं के अधिकारों, उन्हें शिक्षा दिलवाने हेतु संघर्ष करती रहीं। वह संस्कृत भाषा की संपूर्ण विद्वान थीं, उन्होंने अल्पायु में ही इस प्राचीन भाषा पर सुविज्ञता प्राप्त कर ली थीं।। वह स्वयं अपने को सदा समाज सेवा में लीन रखती थीं। वह कविता भी लिखती थीं।

महिलाओं को स्वतंत्रता के अर्थ समझाती थीं

पण्डित रमाबाई अनगिनत महिलाओं को अपनी स्वयं की स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु शिक्षा दी। यह बात उन दिनों की है, जब कोई भारतीय महिला ऐसी बातें करने का स्वपन भी नहीं देखती थी। 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इण्डियन नैश्नल कांग्रेस) पार्टी की स्थापना भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के उद्देश्य से ही हुई थी तथा उस समय इस पार्टी में शामिल होने का अर्थ ही स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ना माना जाता था।


ब्रिटिश नागरिक ने की थी कांग्रेस पार्टी की स्थापना

यहां दिलचस्प बात यह भी है कि इसी कांग्रेस पार्टी की स्थापना कैन्ट, इंग्लैण्ड में जन्म लेने वाले ब्रिटिश नागरिक डॉ. ऐलन ऑक्टावियन ह्यूम ने अपने कुछ भारतीय आन्दोलनकारी साथियों के साथ मिल कर की थी। वह 1849 में पहली बार सिविल सर्विसेज़ के अधिकारी बन कर भारत आए थे। उन्होंने भारत का 1857 का ग़दर देखा था तथा उन्होंने अपने साथी ब्रिटिश नागरिक शासकों द्वारा भारतीय नागरिकों पर किए गए अत्यधिक अत्याचारों को देख कर उन्हें बहुत बुरा-भला कहा था।


Pandita Ramabai कभी सच्चे मसीही नहीं रहे भारत के अंग्रेज़ शासक

जैसा कि हम पहले भी बात कर चुके हैं कि अंग्रेज़ शासकों ने यीशु मसीह की शिक्षाओं व अपने मसीही धर्म की अहिंसा की नींव पर कभी ध्यान ही नहीं दिया था। वे तो यहां पर व्यापार करने व धन कमाने के लिए आए थे, क्योंकि भारत प्राचीन समयों से ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता रहा था और था भी। सदा धन के लालच में डूबे रहने वाले लोग सच्चे मसीही कभी नहीं हो सकते। क्योंकि ऐसा हमें स्वयं यीशु मसीही ने ही सिखलाया है। परन्तु डॉ. ह्यूम तो यीशु मसीह के सच्चे भक्त थे, इसी लिए वह अपने साथियो (जो ग़लत राह पर चल रहे थे) को सच्चे पथ पर चलने की शिक्षा देना चाहते थे। उन के जीवन संबंधी उस दूसरे अनुभाग में विचार किया जाएगा, जिस में ऐसे दर्जनों विदेशियों (ब्रिटिश नागरिकों सहित) की बात होगी - जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आन्दोलनों में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। फ़िलहाल हम अपनी बात को पण्डिता रमाबाई के जीवन को समझने तक सीमित रखते हैं।


1889 के कांग्रेस सत्र में भाग लिया था पण्डिता रमाबाई ने

पण्डिता रमाबाई उन 10 सदस्यीय महिला प्रतिनिधियों (डैलीगेट्स) में भी सम्मिलित थीं, जिन्होंने सन् 1889 के कांग्रेस सत्र में भाग लिया था। उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी भारतीय महिलाओं के जीवन में सुधार लाने में ही व्यतीत कर दी।


अनेक पुस्तकों में भारतीय महिलाओं की समस्याओं को उभारा

उन्होंने वैसे तो अनेकों पुस्तकें लिखीं थीं, परन्तु ‘दि हाई-कास्ट इण्डियन वुमैन’ (उच्च जाति की भारतीय महिला) उनकी बहु-चर्चित पुस्तक रही है, जिस में उन्होंने महिलाओं की समस्याओं को उजागर किया है, विशेषतया उन्होंने ऐसी महिलाओं के जीवन पर भी अपना ध्यान केन्द्रित किया, जिनके विवाह उनके अभिभावकों ने बचपन में ही कर दिए थे।

करनाटक के ब्राह्मण परिवार में हुआ था जन्म

पण्डिता रमाबाई का जन्म करनाटक राज्य की करकाला तहसील के गांव माला के गंगामूल क्षेत्र में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम अनंत शास्त्री डोंगरे व माता का नाम लक्ष्मी बाई था। उन्होंने ही अपनी पुत्री को संस्कृत भाषा सिखलाई थी, क्योंकि वह बहुत प्रकाण्ड पण्डित थे। यहां यह भी वर्णनीय है कि उस समय के भारतीय समाज की महिलाओं व कुछ तथाकथित निम्न वर्गों को संस्कृत भाषा सीखने की अनुमति नहीं थी। वे तत्कालीन अन्य अभिभावकों की तरह नहीं थे, वह अपनी पुत्री को स्वतंत्र रखते थे। उन्होंने उनके कहीं भी आने-जाने पर कभी कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाए थे।


जल्दी उठ गया था माता-पिता का साया

परन्तु उन्हीं माता-पिता का साया रमाबाई के सर से कुछ जल्दी ही उठ गया था। तब पण्डिता जी को अपने भाई के पास कोलकाता जाकर रहना पड़ा। वहां पर संस्कृत भाषा में लिखीं उनकी कविताओं को ‘पण्डिता’ एवं ‘सरस्वती’ पुरुस्कार मिले।


इंग्लैण्ड में लिया था बप्तिस्मा

कलकत्ता में उन्होंने मसीही धर्म संबंधी अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया था। फिर बाद में वह उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु इंग्लैण्ड गए। वहां जाकर उन्हें मसीही धर्म संबंधी और अधिक जाने के अनेकों अवसर मिले, और वहीं पर उन्होंने बप्तिस्मा लेकर मसीहियत को सदा के लिए अपना लिया।


मुक्ति मिशन’ व ‘मुक्ति चर्च’ की स्थापना

बप्तिस्मा लेने के आठ वर्ष बाद उन्होंने एक बार लिखा था कि ‘मैं चाहे प्रतिदिन बाईबल पढ़ती हूं, परन्तु मेरे दिल में अभी तक यीशु मसीह नहीं आए हैं। मुझे यीशु की आवश्यकता है, उनके धर्म की नहीं।’ वह अपने मन की ऐसी सच्ची भावनाएं प्रायः लोगों से अपनी रचनाओं के द्वारा साझी किया करते थे। बाद में जब वह यीशु मसीह को अच्छी तरह से समझने लगीं और उन्हें लगा कि यीशु मसीह ने सचमुच उनके मन-मन्दिर में आ कर निवास कर लिया है, तब उन्होंने अन्य लोगों को सही पथ दिखलाने हेतु एक धार्मिक ‘मुक्ति मिशन’ व ‘मुक्ति चर्च’ की स्थापना की थी, जो भारत में आज भी कई स्थानों पर चल रहा है।


1876-1878 में दक्षिण भारत के अकाल के दौरान की जन-सेवा

1876 से लेकर 1878 तक दक्षिण भारत अकाल से बुरी तरह प्रभावित रहा था। लोग तब भूख से मरने लगे थे। ऐसी स्थिति में पण्डिता स्वयं शरणार्थी शिविरों में जाया करती थीं तथा उन्होंने तब अनेकों विधवाओं व बच्चियों को भूख से मरने व उनके साथ दुर्व्यवहार होने से बचाया था। उस भयानक अकाल के दौरान ऐसी सेवा करनी बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि उस समय तो सभी लोगों को अपनी स्वयं की जान की फ़िक्र पड़ी हुई थी। पण्डिता रमाबाई ने अपनी स्व-जीवनी में भारत की उस ऐतिहासिक प्राकृतिक आपदा संबंधी कई विवरण दिए हैं। वह लिखती हैं कि उनके आस-पास 1,500 ऐसे लोग रहते हैं, जो निर्धन हैं परन्तु वे सभी बहुत प्रसन्न हैं क्योंकि उन्हें परमेश्वर की कृपा से प्रतिदिन उनकी रोटी मिलती है। वास्तव में 1877 में अकाल के दौरान ही सुश्री रमाबाई के माता-पिता चल बसे थे। इसी लिए उनके देहांत के उपरान्त तो उन्होंने स्वयं को पूर्णतयाा लोक-सेवा हेतु ही अर्पित कर दिया था।


महिलाओं को देती थीं निःशुल्क शिक्षा

ऐसे विपत्ति के समय में भी पण्डिता रमाबाई व उनके सहायक महिलाओं को पढ़ना-लिखना सिखलाते रहते थे। उन्हें सदा स्वच्छ रहना सिखलाते थे और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने सिखलाया जाता था। पण्डिता रमाबाई सभी को यीशु मसीह की शिक्षाओं संबंधी भी जागृत करते रहते थे। उन्होंने पुणे व बम्बई में भी अपने आश्रम खोल दिए थे। उन्होंने करनाटक के गुलबर्गा नगर में एक क्रिस्चियन हाई स्कूल भी खोला था। उनकी पुत्री मनोरमा उस स्कूल की प्रिंसीपल थीं, जो अमेरिका से अपनी शिक्षा ग्रहण करके आईं थीं तथा आस्ट्रेलिया भी जा चुकी थीं।


1880 में बंगाली वकील के साथ विवाह रचाया

अपने भाई के देहांत के पश्चात् सुश्री रमाबाई ने 13 अप्रैल 1880 को बंगाली वकील बिपिन बिहारी मेधवी के साथ विवाह रचाया था। श्री बिपिन बंगाली कायस्थ थे, इस प्रकार उस समय यह विवाह भी अंतर्जातीय था। परन्तु 1882 में ही उनके पति का देहांत हो गया था। उसके बाद सुश्री रमाबाई पुणे चली गईं और वहां पर उन्होंने आर्य महिला समाज नामक एक संस्था की नींव रखी।


लार्ड रिप्पन के विशेष शिक्षा आयोग के समक्ष दिया था ज़ोरदार भाषण

जब 1882 में उस समय की ब्रिटिश सरकार के लॉर्ड रिप्पन ने एक विशेक्ष शिक्षा आयोग बनाया, तो सुश्री रमाबाई ने उसके समक्ष बहुत जोश से अपना भाषण देते हुए कहा था कि ‘भारत में 99 प्रतिशत पुरुष नहीं चाहते कि महिलाएं ठीक ढंग से कभी पढ़ पाएं। यदि वे महिलाओं की बहुत छोटी सी भी ग़लती को देख लेते है, तो वे उसे जानबूझ कर बड़ा बना कर दर्शाते हैं, ताकि वे कभी आगे न बढ़ सकें। वे जानबूझ कर उनके चरित्र पर दाग़ लगाना चाहते हैं, ताकि वे उनके सामने कभी अपना मुंह न खोल पाएं।’ उन्होंने तब आयोग को सुझाव दिया था कि अध्यापकों को ऐसे मामलों में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए व विशेष महिला निरीक्षकों को नियुक्त किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारतीय महिलाएं तो आजीवन किसी न किसी प्रकार के रोग से भी पीड़ित रहती हैं, उन्हें अस्पतालों में दाख़िल करवा कर उनका सही उपचार किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारतीय महिलाओं की ऐसी दशा के कारण ही यह समाज पछड़ा हुआ रह गया है।


इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया तक भी पहुंचा था पण्डिता रमाबाई का भाषण

पण्डिता रमाबाई का यह भाषण तब इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया तक भी पहुंचा था। इसी कारण लेडी डफ़रिन (जो एक ब्रिटिश नागरिक थीं, वह 1884 से 1888 में भारत के वॉयसराय रहे लॉर्ड डफ़रिन की सुपत्नी थीं परन्तु भारत में उनके द्वारा किए गए सामाजिक कल्याण कार्य वर्णनीय हैं) ने बाद में भारतीय महिलाओं हेतु विशेष मैडिकल अभियान चलाया था।


Pandita Ramabai Stamp1883 में इंग्लैण्ड, अमेरिका व कैनेडा गईं

1883 में पण्डिता रमाबाई इंग्लैण्ड गईं थीं। फिर वहीं से वह अमेरिका भी गई थीं जहां उन्होंने भारत की प्रथम महिला डॉक्टर आनन्दीबाई जोशी (1886-1888 बैच) को मैडिकल डिग्री लेते हुए देखा था। वह तब डॉ. जोशी से अत्यंत प्रभावित हुई थीं। उन्होंने अपनी अंग्रेज़ी पुस्तक ‘दि हाई कास्ट हिन्दु वुमैन’ डॉ. जोशी को ही समर्पित की थी। तब पण्डिता रमाबाई ने अमेरिका व कैनेडा में अनेक स्थानों पर अपने भाषण दिए थे, जिन्होंने श्रोताओं को अपनी ओर ख़ूब आकर्षित किया था। इसके अतिरिक्त पण्डिता रमाबाई ने अन्य बहुत सी वर्णनीय पुस्तकों को अनुवाद भी किया था। सन् 1900 तक उनकी मुक्ति मिशन के साथ 1,500 मसीही लोग जुड़ चुके थे तथा उनके पास सैंकड़ों मवेशी भी थे। उन्होंने एक मुक्ति चर्च भी स्थापित किया था। पण्डिता रमाबाई मुक्ति मिशन आज भी सक्रिय है।


1919 में मिला था ‘कैसर-ए-हिन्द’ पुरुस्कार

पण्डिता रमाबाई को ब्रिटिश सरकार ने 1919 में ‘कैसर-ए-हिन्द’ पुरुस्कार दिया था। ऐपिस्कोपल चर्च ने भी उन्हें अपने प्रीति-भोज के सुअवसर पर सम्मानित किया था। पण्डिता रमाबाई का निधन 5 अप्रैल, 1922 को हुआ।


भारत सरकार ने पण्डिता रमाबाई की याद में जारी किया था डाक-टिक्ट

26 अक्तूबर, 1989 को भारत सरकार ने पण्डिता रमाबाई की याद में एक विशेष डाक-टिक्ट भी जारी किया था। सचमुच भारत के मसीही समुदाय के लिए बहुत बड़े गर्व की बात है।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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