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अनेक मसीही लोगों को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ने वाले जॉर्ज जोसेफ़



ऐनी बेसैंट की सलाह पर 1918 में इंग्लैण्ड गए ‘होम रूल’ डैलीगेशन के सदस्य थे जॉर्ज जोसेफ़

हमारा उद्देश्य मसीही युवाओं सहित समस्त मसीही समुदाय को अपनी अमीर संस्कृति व स्वतंत्रता आन्दोलन में उनके पूर्वजों के बहुमूल्य योगदान संबंधी स्मरण करवाना व जागरूक करना है। उसी क्रम में हम श्री जॉर्ज जोसेफ़ (जन्म 5 जून, 1887) संबंधी कुछ जानकारी साझी करनी चाहेंगे। वह भी भारत के उन महान् मसीही स्वतंत्रता सेनानियों में सम्मिलित थे, जिनके योगदान को कोई कभी नहीं भुला सकता। 1918 में जब तीन सदस्यों पर आधारित प्रसिद्ध ‘होम रूल’ प्रतिनिधि मण्डल भारत से इंग्लैण्ड गया था, तब जॉर्ज जोसेफ़ उन सदस्यों में से एक थे। इस प्रतिनिधि मण्डल ने भारत को स्वतंत्र करने की बात इंग्लैण्ड की जनता को जाकर बताने व समझाने का प्रयत्न किया था। 1917 में जब श्री जॉर्ज जोसेफ़ 29 वर्ष के थे, तब ऐनी बेसैंट ने उन्हें ‘होम रूल’ अभियान के अंतर्गत इंग्लैण्ड जाने हेतु प्रेरित किया था। परन्तु वह अभियान अंग्रेज़ शासकों ने असफ़ल कर दिया था क्योंकि ऐनी बेसैंट ने जिस समुद्री पोत में प्रतिनिधि मण्डल के तीनों सदस्यों अर्थात श्री जॉर्ज जोसेफ़, श्री बी.वी. नरसिम्हन तथा श्री सैय्यद हुसैन को बिठाया था, उसे स्पेन के दक्षिण तट के पास अपने छोटे से देश जिब्राल्टर में ही रोक कर इन तीनों को ग्रिफ़्तार कर लिया था। इसके अतिरिक्त श्री जोसेफ़ ने मदुराई के रॉयल्ट सत्याग्रह का भी नेतृत्त्व किया था। उन्होंने मदुराई में ही कपड़ा मिल के कर्मचारियों को भी अपने अधिकारों के लिए एकजुट किया था क्योंकि उन्हें बहुत कम वेतन पर अधिक घन्टों तक कार्य करना पड़ता था।


असंख्य मसीही भाईयों-बहनों को जोड़ा स्वतंत्रता आन्दोलनों के साथ

श्री जोसेफ़ के गतिशील नेतृत्त्व के कारण ही असंख्य भारतीय मसीही भाई-बहन स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। जॉर्ज जोसेफ़ एक वकील भी थे। केरल के सीरियन मसीही समुदाय से संबंधित प्रारंभिक स्वतंत्रता संग्रामियों में उनका नाम शुमार होता है। वैसे उनका अधिकतर जीवन तामिल नाडु राज्य के नगर मदुराई में व्यतीत हुआ था।


ऐशो-इश्रत त्याग कर हुए थे स्वतंत्रता सेनानियों के दल में शामिल

George Joseph श्री जोसेफ़ की वकालत उन दिनों बहुत बढ़िया चल रही थी, जब वह अपना ऐशो-इश्रत का जीवन त्याग कर अन्य स्वतंत्रता संग्रामियों/सेनानियों के दल में सम्मिलित हो गए थे। उनके साथ अन्य कई अधिवक्ताओं (वकीलों) ने भी तब ऐसा त्याग किया था। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल होने हेतु में ऐसा त्याग करने वाले कुछ प्रथम वकीलों में श्री जोसेफ़ का भी नाम लिया जाता है। पहले वह बहुत बढ़िया वस्त्र पहन कर न्यायालय में जाया करते थे परन्तु बाद में उन्होंने आजीवन खादी के ही वस्त्र पहने। ‘होम रूल’ रोष प्रर्दशन के अतिरिक्त वह ‘वायकॉम सत्याग्रह’ से भी सक्रियतापूर्वक जुड़े रहे थे।


1921 के असहयोग आन्दोलन में ब्रिटिश शासकों ने राजद्रोह का आरोप लगा भेजा जेल

1921 के असहयोग आन्दोलन में भी उनकी भूमिका वर्णनीय रही थी तथा तब उन्होंने भारत में विदेशी वस्त्रों के प्रयोग का डट कर विरोध किया था। तब उन्हें जेल-यात्रा भी करनी पड़ी थी। 1922 में ब्रिटिश शासकों ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगा कर लखनऊ ज़िला जेल में भेज दिया था। जेल में उन्होंने पूरा एक वर्ष जवाहरलाल नेहरू, महादेव देसाई, पुरशोत्तम दास टण्डन एवं देवदास गांधी के साथ बिताया था।


पुलिस ने ढाहे थे अत्यधिक अत्याचार

वायकॉम सत्याग्रह के दौरान तत्कालीन अंग्रेज़ शासकों की पुलिस ने उन पर बहुत अधिक अत्याचार ढाहे थे। उन्हें कई दिनों दिन हिरास्त में रख कर बाद में कारावास में डाल दिया गया था। वास्तव में यह सत्याग्रह उस समय के प्रसिद्ध त्रावनकोर राज्य में (अब केरल में) हिन्दु समुदाय में से छुआछूत (अस्पृश्यता) समाप्त करने हेतु किया गया था।


महात्मा गांधी जी के एक निर्देश से हो गए थे दुःखी

कांग्रेस पार्टी पहले इसी मुद्दे पर एक प्रस्ताव पारित कर चुकी थी। इसी लिए 6 अप्रैल, 1924 को महात्मा गांधी ने श्री जोसेफ़ को पत्र लिखा कि वह अभी इस सत्याग्रह में सम्मिलित न हों, क्योंकि हिन्दुओं को वह स्वयं जागरूक होने दें परन्तु श्री जोसेफ़ तो वह पत्र पहुंचने से पहले ही उस आन्दोलन में कूद चुके थे और अपने हिन्दु भाई-बहनों को इस बात के लिए प्रेरित करने लगे थे कि वह दलितों को भी अपने मन्दिरों में जाने की अनुमति दें। गांधी जी का पत्र मिलने से श्री जोसेफ़ का दिल टूट गया तथा वह कांग्रेस पार्टी को छोड़ कर ‘जस्टिस पार्टी’ में चले गए थे परन्तु 1935 में वह पुनः कांग्रेस में आ गए थे।


जॉर्ज जोसेफ़ पहले बने मोती लाल नेहरू व बाद में महात्मा गांधी के अख़बारों के सम्पादक

जुलाई 1937 में वह केन्द्रीय विधान सभा हेतु चुने गए थे। श्री जोसेफ़ पहले मोतीलाल नेहरू के अलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र ‘दा इण्डीपैन्डैण्ट’ एवं फिर महात्मा गांधी जी के अख़बार ‘यंग इण्डिया’ के संपादक भी नियुक्त हुए थे। श्री जोसेफ़ से पूर्व ‘यंग इण्डिया’ के संपादक श्री सी. राजगोपालचारी थे। श्री जोसेफ़ की ग्रिफ़्तारी के उपरान्त ‘दा इण्डीपैन्डैण्ट’ अख़्बार सदा के लिए बन्द हो गया था।


लन्दन से की थी वकालत पास

श्री जॉर्ज जोसेफ़ का जन्म त्रावनकोर राज्य के नगर चेंगन्नूर के सीरियन मसीही परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सी.आई. जोसेफ़ था। श्री जॉर्ज के छोटे भाई पोथान जोसेफ़ एक प्रसिद्ध पत्रकार थे तथा वह भी कई समाचार-पत्रों के संपादक रहे। श्री जॉर्ज जोसेफ़ ने मद्रास क्रिस्चियन कॉलेज से स्नातक (बी.ए.) की परीक्षा उतीर्ण की तथा फिर इंग्लैण्ड की युनिवर्सिटी ऑफ़ एडिनबरा में फ़िलॉसफ़ी में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की। 1908 में उन्होंने मिडल टैंपल, लन्दन से वकालत पास की। वह लन्दन में शिक्षा ग्रहण करते समय ही वहां के कुछ भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलनकारियों के संपर्क में आ गए थे। परन्तु वह जनवरी 1909 में वहां से भारत वापिस आ गए थे।


सुब्रामनियम भारती ने लिखी थी प्रसिद्ध कविता जॉर्ज जोसेफ़ के घर

बाद में वह महात्मा गांधी, सी. राजगोपालचारी, श्रीनिवास आयंगर एवं के. कामराज के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सुब्रामनियम भारती ने देश-भक्ति से ओत-प्रोत अपनी कविता ‘विद्युथलाई’ (अर्थात स्वतंत्रता) श्री जॉर्ज जोसेफ़ के घर में ही बैठ कर रची थी।


नेहरू ने जॉर्ज जोसेफ़ का किया स्व-जीवनी में वर्णन

जॉर्ज जोसेफ़ को लम्बी बीमारी के दौरान मदुराई स्थित अमेरिकन मिशन अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। 5 मार्च, 1938 को वहीं पर 50 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी स्व-जीवनी में श्री जॉर्ज जोसेफ़ का वर्णन किया है। उनके पौत्र ग़ेवरर्गीज़ जोसेफ़ ने उनकी जीवनी लिख कर प्रकाशित करवाई थी।

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-- -- मेहताब-उद-दीन

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