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जनरल जीन-फ्ऱैंकोइस एलार्ड -- शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के बहादुर सेनाध्यक्ष



 




 


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शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की सेना में कई यूरोपीय अधिकारी थे, जिनमें से अधिकतर फ्ऱांस और इटली के पूर्व सैनिक थे। वह एक अमेरिकी सैन्य अधिकारी भी थे; जो अपनी सरकारी नौकरी के दौरान युद्ध नीतियां बनाते रहे और कई युद्ध लड़े। महाराजा की सेना में वे श्वेत अधिकारी भी शामिल थे जिन्होंने विश्व प्रसिद्ध फ्ऱांसीसी जनरल नेपोलियन बोनापार्ट द्वारा लड़े गए ऐतिहासिक युद्धों में भाग लिया था। महाराजा की सेना में सेवा करते समय, उन्हीं श्वेत अधिकारियों ने यूरोपीय शैली का मार्शल आर्ट जवानों को सिखलाया।

जनरल जीन-फ्ऱैंकोइस एलार्ड

General Jean Francois Allard महाराजा रणजीत सिंह की सेना में सेवारत जनरल जीन-फ्ऱैंकोइस एलार्ड का नाम उल्लेखनीय है। वह फ्रांस में घुड़सवार सेना के अधिकारी थे और बाद में फ़ारस (जिसे अब ईरान के नाम से जाना जाता है) के तत्कालीन शासक अब्बास मिर्ज़ा की सेना में शामिल हो गए। महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी घुड़सवार सेना को आधुनिक प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए नियुक्त किया था। इतिहासकारों का मानना है कि महाराजा उस समय अपने सेनापति जनरल एलार्ड पर सबसे अधिक विश्वास करते थे। जनरल एलार्ड दक्षिणी फ्रांस के सेंट-ट्रोपेज़ शहर के मूल निवासी थे। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि वर्ष 2016 में इस फ्रांसीसी शहर के मेयर पियरे टुवे ने एक खूबसूरत बस्ती में स्थित एक मनमोहक पार्क में महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा स्थापित की थी। इसके लिए महापौर को अपने ही डिप्टी और पर्यटन मामलों के प्रभारी हैनरी प्रीवोस्ट-एलार्ड से प्रेरणा मिली। यह उप-महापौर वास्तव में जनरल एलार्ड के वंशज हैं, अर्थात वह उनकी संतानों में से एक हैं। इस प्रतिमा के अनावरण के अवसर पर फ्ऱांसीसी सिख संगठन ‘सिख्स डी फ्ऱांस’ के तत्कालीन अध्यक्ष रणजीत सिंह गोराया भी उपस्थित थे। दो फीट 8.68 इंच ऊंची और 110 किलोग्राम वज़नी इस मूर्ति को विशेष रूप से मध्य प्रदेश के ग्वालियर स्थित प्रभात मूर्ति कला केंद्र द्वारा तैयार किया गया है।

जनरल एलार्ड ने तैयार करवाया था‘ ऑर्डर ऑफ़ गुरु गोबिंद सिंह’ नामक एक पदक

8 मार्च, 1785 को पैदा हुए जनरल एलार्ड और इतालवी जनरल जां बैपटिस्टा वेंचुरा पहली बार 1822 में लाहौर पहुंचे थे। जनरल एलार्ड का निवास लाहौर के अनारकली बाग़ में था और अनारकली (मुग़ल सम्राट जहांगीर की मेहबूबा) का मकबरा भी इसी बाग़ में स्थित था। जनरल एलार्ड ने महाराजा रणजीत सिंह के अनुरोध पर उनकी सेना के बहादुर सैनिकों और अन्य अधिकारियों के लिए एक विशेष पदक तैयार करवाया था, जिसे ‘ ऑर्डर ऑफ़ गुरु गोबिंद सिंह’ कहा गया। इस पदक का डिज़ाइन तत्कालीन प्रसिद्ध फ्रांसीसी पुरस्कार, लीजन डी’ऑनर के आधार पर तैयार किया गया था। जनरल एलार्ड ने बहुत आधुनिक तरीके से एक छावनी का निर्माण करवाया, जिसमें अधिकारियों के लिए आवास और सैनिकों के लिए बैरकें थीं। 1835 तक एक सैन्य कैंटीन और चिकित्सा कोर भी स्थापित हो चुकी थी।

महाराजा रणजीत सिंह के जनरल होने के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध हो गये थे जनरल एलार्ड

फ्ऱांस के नगर सेंट ट्रोपेज़ में स्थापित महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा

Saint Tropez, France__Statue of Maharaja Ranjit Singh जनरल एलार्ड उस समय भी महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में युद्ध जीतकर पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो चुके थे। इसका उदाहरण इस बात से दिया जा सकता है कि वर्ष 1837 में जब जनरल एलार्ड फ्ऱांस की राजधानी पेरिस गए तो फ्रांसीसी सेना के सैकड़ों कनिष्ठ व वरिष्ठ अधिकारियों ने उनके समक्ष अपने आवेदन प्रस्तुत किए और वे तुरंत फ्ऱांसीसी सेना से त्यागपत्र देकर जनरल एलार्ड के साथ 8 हजार किलोमीटर से भी अधिक दूर स्थित पंजाब जाने के लिए तैयार थे। तभी ईस्ट इंडिया कंपनी के जासूसों को संदेह हुआ कि सैकड़ों अधिकारी और सैनिक एक साथ फ्रांसीसी सेना को छोड़ने के लिए तैयार हैं। जब यह खबर इंग्लैंड की राजधानी लंदन में रहने वाले ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों तक पहुंची, तो उन्होंने तुरंत भारत के ब्रिटिश शासकों को संदेश भेजकर इस बारे में चेतावनी दी। ऐसा था जनरल एलार्ड का आतंक!

सिख साम्राज्य का ‘तोपखाना-ए-ख़ास’

इसी प्रकार महाराजा की सेना में जनरल बैप्टिस्टा वेंचुरा के साथ जनरल पाओलो डी’एविटाबिले भी थे, जो इतालवी सेना में सेवा कर चुके थे। उन्होंने नये सैनिकों को उस समय की आधुनिक राइफलों का प्रयोग करना सिखाया। इसी तरह जनरल क्लौड ऑगस्ट कोर्ट जो फ्रांसीसी सेना में तोपखाना अधिकारी थे, वे भी महाराजा की सेना में थे और उन्होंने ही महाराजा के लिए पहला तोपखाना डिवीज़न शुरू किया था, जिसका नाम तब ‘तोपखाना-ए-ख़ास’ था।

इसी प्रकार महाराजा रणजीत सिंह की सेना में एक और श्वेत अधिकारी अलेक्जेंडर गार्डनर थे, जो मूल रूप से अमेरिकी थे और जिन्होंने पंजाब में रहते हुए तोपखाने के विकास में भी बड़ा योगदान दिया था। आधुनिक हथियारों और प्रशिक्षित सैनिकों की मदद से ही महाराजा ने काबुल से कंधार तक की लड़ाई जीती। इंग्लैंड से आये उनके समकालीन श्वेत शासकों ने भी इन्हीं हथियारों की मदद से सैकड़ों भारतीय रियासतों को अपने नियंत्रण में ले लिया था।

महाराजा रणजीत सिंह, अद्वितीय धर्मनिरपेक्ष सिख सम्राट

अब सवाल यह उठता है कि सात समंदर पार, अमेरिका और यूरोपीय देशों से इतने सारे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी पंजाब में आकर रहने को क्यों चुनते हैं। सबसे पहले महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें दिल खोल कर वेतन दिया था। दूसरे, उनका स्वभाव बिना किसी पूर्वाग्रह या भेदभाव के अपनी प्रजा के सभी धर्मों और संस्कृतियों का समान रूप से सम्मान करना था। ज़रा सोचिए, क्या महाराजा रणजीत सिंह क्रिसमस और ईस्टर जैसे त्योहारों पर अपने ईसाई सैन्य अधिकारियों द्वारा मनाए जाने वाले उत्सवों में भाग नहीं लेते होंगे? ऐसा अवश्य हुआ होगा, क्योंकि महाराजा की सेना में न केवल फ्ऱांस, इटली और अमेरिका के सैनिक शामिल थे, बल्कि स्पेन, हंगरी, रूस, ग्रीस और यहां तक कि इंग्लैंड के भी कुल 5,500 सैनिक शामिल थे। इस प्रकार, महाराजा रणजीत सिंह के ख़ालसा राज में सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान किया जाता था। वर्तमान शासकों को ऐसी व्यवस्था से कुछ सीख लेनी चाहिए।

उन्होंने ख़ालसा राज्य की स्थापना ऐसे ही नहीं की थी। वह बिल्कुल भी कट्टरपंथी नहीं थे। यदि वेह कट्टरपंथी होते और अन्य धर्मों के लोगों के प्रति असहिष्णु होते, तो ये श्वेत सैनिक यहां एक दिन भी नहीं बिताते। आधे मन से तो कोई भी व्यक्ति परिस्थितियों से समझौता कर सकता है, लेकिन ग़ैर-सिखों की इतनी बड़ी संख्या कभी भी लंबे समय तक नहीं टिक सकती। महाराजा के शासन में उन्हें आरामदायक माहौल मिला होगा, इसीलिए वे यहां रुक गए। महाराजा हमेशा प्रतिभाशाली व्यक्तियों को महत्व देते थे, चाहे उनकी जाति या धर्म कुछ भी हो।

महाराजा रणजीत सिंह एक योद्धा प्रशासक और पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष स्वभाव के सिख सम्राट थे। इनका शासनकाल 1801 से 1839 तक रहा। इनका जन्म 1809 ई. में हुआ था। 1811 में अमृतसर में इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें दोनों पक्षों के क्षेत्रों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया था। तभी महाराजा को यह एहसास हुआ कि भविष्य में किसी समय उन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के साथ युद्ध लड़ना पड़ सकता है। इसीलिए उन्होंने अपनी सेना का तेजी से आधुनिकीकरण करने और अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करने का निर्णय लिया। उन्होंने ब्रिटिश शासकों से लड़ने के लिए अपनी सेना में यूरोप से सैनिकों को शामिल करने का निर्णय लिया।

जब फ्ऱांसीसी सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट 1815 में वाटरलू की लड़ाई हार गए, तो उनकी सेना बिखर गयी। उस समय, कई फ्ऱांसीसी सैन्य अधिकारी बेरोज़गार हो गए थे और इसलिए वे नौकरी करने के लिए दूर-दूर तक जाने को तैयार थे। यह ऐसा समय था जब कई श्वेत सैनिक और अधिकारी सिख साम्राज्य में आकर रहने को प्राथमिकता देते थे। उन दिनों फ़ारसी शाह और ग्वालियर के राजा महादजी शिंदे ने अपनी सेना में कुछ गोरे सैनिकों को भी शामिल किया था।

सिख साम्राज्य की सैन्य संरचना

फ्ऱांस के नगर सेंट ट्रोपेज़ में स्थापित महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा का एक अन्य दृश्यSaint Tropez, France, Statue of Maharaja Ranjit Singh

महाराजा रणजीत सिंह की सेना में कनिष्ठ सैनिकों को नकद वेतन मिलता था, जबकि वरिष्ठ अधिकारियों को जागीरें या भूमि दी जाती थी। अधिकारी उन सम्पदाओं से प्राप्त आय का उपयोग अपने लिए करता था और शेष राशि अपनी रेजिमेंट को देता था। ‘हिस्ट्री प्लस’ के अनुसार सिख खालसा सेना की तीन टुकड़ियाँ थीं। एक था ‘फ़ौज-ए-ख़ास’, जिसमें केवल 5,500 यूरोपीय सैन्य अधिकारी और सैनिक थे। दूसरा भाग ‘फ़ौज-ए-आएन’ था; इसमें वे 60,000 भारतीय सैनिक शामिल थे, जिन्हें यूरोपीय सैन्य अधिकारियों द्वारा प्रशिक्षित किया गया था। तीसरे भाग को ‘फ़ौज-ए-कवाई’ कहा जाता था; जिसमें विभिन्न भूस्वामियों, भाड़े के सैनिकों, सिख धार्मिक समूहों आदि की निजी सेनाएं शामिल थीं और उनकी संख्या 50,000 से अधिक थी।

फ़ौज-ए-ख़ास में चार बटालियनें शामिल थीं - सेना की दो रेजिमेंट, दो घुड़सवार रेजिमेंट और एक तोपखाना टुकड़ी। घुड़सवार सेना को ब्रिटिश मॉडल के अनुसार और सेना को फ्ऱांसीसी पद्धति के अनुसार प्रशिक्षित किया गया था। चूंकि अधिकांश सैनिक फ्ऱांसीसी मूल के थे, इसलिए ‘फ़ौज-ए-ख़ास’ की वर्दी भी नेपोलियन की सेना की तरह नीली थी। महाराजा रणजीत सिंह की व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए इसी सेना के निजी अंगरक्षक भी मौजूद थे। उनमें से कुछ अधिकारियों और सैनिकों ने हिंदू और सिख धर्म भी अपना लिया था और हमेशा के लिए भारतीय धरती का हिस्सा बन गए थे।

महाराजा की मृत्यु के बाद इस प्रकार हुआ सिख साम्राज्य का पतन

चूंकि जनरल एलार्ड अपने कार्यकाल के दौरान महाराजा रणजीत सिंह के बहुत करीब थे, इसलिए कुछ सिख जनरलों को उनसे थोड़ी ईर्ष्या भी होने लगी थी। सेना के भीतर भी कई गुट बन गये थे। कुछ मज़बूत स्थानीय गुटों को लगा कि ये शिक्षित यूरोपीय लोग भविष्य में उनके लिए ख़तरा बन सकते हैं, इसलिए उन्होंने किसी तरह इन श्वेत सैनिकों को अपने-अपने देशों में लौटने के लिए मजबूर कर दिया। जनरल एलार्ड ने भी जनवरी 1839 में लाहौर में अंतिम सांस ली और वहीं उन्हें दफ़नाया गया। ठीक पांच महीने बाद, जून में, महाराजा का भी निधन हो गया। महाराजा के इस नश्वर संसार से चले जाने के बाद लाहौर दरबार में आन्तरिक कलह, हत्याएं और तख्तापलट, अर्थात् गृहयुद्ध का दौर शुरू हो गया। कई वरिष्ठ प्रशासनिक और सैन्य अधिकारियों ने इस्तीफ़ा दे दिया। उसके बाद खालसा सेना में बहुत कम विदेशी सैनिक बचे थे और उन्हें भी 1844 में बर्ख़ास्त कर दिया गया। दरअसल, उस समय प्रधानमंत्री हीरा सिंह डोगरा ने सिख साम्राज्य से विदेशियों को पूरी तरह से ख़त्म करने के लिए एक व्यवस्थित अभियान चलाया था। इसके बाद 1849 में सिख साम्राज्य ब्रिटिश शासन में शामिल हो गया और गोरे शासकों ने खालसा सेना को ख़त्म कर दिया।


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